शिक्षा का महत्व किसी भी समाज में अनिवार्य है। यह सिर्फ ज्ञान का स्रोत नहीं बल्कि समाज के हर व्यक्ति के विकास का आधार है। परंतु वर्तमान समय में शिक्षा का स्वरूप बदल रहा है। शिक्षा अब एक आवश्यक सेवा नहीं बल्कि एक व्यापार बन चुकी है। इसके कई दुष्परिणाम आम आदमी पर पड़ रहे हैं, जिनमें महँगी किताबें, निजी स्कूलों की मनमानी और सरकार की उदासीनता प्रमुख हैं। महँगी किताबों की समस्या आज हर विद्यार्थी और उनके माता-पिता के सामने है। हर साल नई-नई किताबें और सिलेबस में परिवर्तन के नाम पर स्कूल मोटी रकम वसूलते हैं। यह सिर्फ किताबों तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि नोटबुक्स, स्टेशनरी और अन्य शिक्षण सामग्री भी अत्यधिक महंगी होती है। इसका परिणाम यह होता है कि शिक्षा का खर्च आम आदमी की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए यह एक बड़ा आर्थिक बोझ बनता जा रहा है। निजी स्कूलों की मनमानी तो मानो आम बात हो गई है। वे मनमाने ढंग से फीस बढ़ाते हैं और विभिन्न शुल्कों के नाम पर अभिभावकों से अतिरिक्त रकम वसूलते हैं। कोई नियंत्रण या निगरानी न होने के कारण ये स्कूल अपनी सुविधानुसार नियम और शर्तें लागू करते हैं। यहां तक कि कई बार विद्यार्थियों की शैक्षिक आवश्यकताओं की उपेक्षा कर दी जाती है और केवल वित्तीय लाभ पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। सरकार की उदासीनता इस समस्या को और भी गंभीर बना रही है। सरकारी स्कूलों की हालत जर्जर है और वहां पर बुनियादी सुविधाओं की भी कमी है। शिक्षकों की कमी, अधूरी पाठ्य सामग्री और अव्यवस्थित प्रशासनिक व्यवस्था के कारण सरकारी स्कूलों की स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है। इसका परिणाम यह है कि आम आदमी को मजबूरी में निजी स्कूलों की ओर रुख करना पड़ता है, जहां उन्हें महंगी शिक्षा का सामना करना पड़ता है।
सरकार की इस उदासीनता पर लगता है जैसे शिक्षा मंत्री खुद अपनी किताबें बेचने के चक्कर में हैं। शिक्षा का बजट बढ़ाने के बजाय, स्कूलों की फीस बढ़ाने पर ध्यान दिया जा रहा है। गरीब की जेब में से आखिरी सिक्का भी निकालने का जतन किया जा रहा है। सरकारी स्कूलों की हालत तो मानो किसी भूतिया हवेली से कम नहीं है, जहां कोई भी जाना नहीं चाहता।
शिक्षा का यह व्यापार, महँगी किताबें और निजी स्कूलों की मनमानी आम आदमी के लिए एक बड़ा संकट बन गया है। सरकार की उदासीनता इस समस्या को और भी गहरा कर रही है। समय आ गया है कि सरकार इस दिशा में ठोस कदम उठाए और शिक्षा को व्यापार से मुक्त कर एक सुलभ और समावेशी सेवा बनाए। वरना वह दिन दूर नहीं जब शिक्षा केवल धनी वर्ग के बच्चों तक ही सीमित रह जाएगी और आम आदमी के लिए यह एक दूर का सपना बन जाएगा।