’’नानाजी का जीवन एक चलती फिरती प्रयोगशाला’’
राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख जी शरद पूर्णिमा के दिन पूर्णिमा के चाँद जैसा सोलह कलाओं से विभूषित हो अवतरितशख्सयित नेअनेको विद्यालय, महा विद्यालय एवं विश्वविद्यालय देश को दिये। देश का पहला सरस्वती शिशु मन्दिर पक्की बाग, गोरखपुर उन्हीं की प्रेरणा से प्रारम्भ हुआ। नानाजी महाराष्ट्र में जरूर जन्म लिया किन्तु उनकी शीतलता भारत के कोने-कोने में फैल गई। नानाजी महाविद्यालयीन, विश्वविद्यालयीन शिक्षा जरूर ग्रहण नहीं किये लेकिन अपने सीखने की ललक के कारण वे हर क्षेत्र में पारंगत हुये और नानाजी कहते थे ’भाई, हम प्रयोग वादी है, प्रयोग करते रहते हैं कुछ सफल होते है कुछ असफल। सफल प्रयोंगों को समाज के समक्ष रखते हैं असफल प्रयोगों को हम अपने पास ही रखते हैं फिर नई खोज शुरू करते हैं। नानाजी सामाजिक क्षेत्र में तब प्रयोग करना प्रारम्भ किये जब साधारण व्यक्ति अपने जीवन का वह समय आराम करने में लगाते हैं लेकिन 60 से 65 वर्ष की आयु के बाद युगानुकूल सामाजिक पुर्नरचना का अनुकरणीय नमूना प्रस्तुत करने हेतु देश के 4-5 स्थानों को चयनित कर अपनी प्रयोगशाला के रूप में खड़ा कर दिये। नानाजी के द्वारा किया गया समाजोपयोगी शोध पूरा एक ग्रन्थ के रूप में तैयार किया जा सकता है। नित नये प्रयोग करने वाले और अपने कार्यकर्ताओं से प्रयोग कराने वाले नानाजी को हम ह्रदय पूर्वक श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
चण्डिका दास से भारत रत्न नानाजी बनने तक का सफर बहुत कठिन एवं परिश्रमशील रहा बचपन में ही माता-पिता चल बसने के कारण छोटे से ’’नाना’’ दुर्गा जी के मन्दिर में बैठकर रोते-रोते प्रण किया कि हमें जीवन में कोई भी महिला मिलेगी उन्हें हम माँ के रूप में ही देखेंगें। जीवन पर्यंत अविवाहित ही रहूँगा और उनके इस अखण्ड संकल्प को राष्ट्रीय स्वसंसेवक संघ के संस्थापक डा0 हेडगेवार जी की प्रेरणा ने पूर्ण किया। समाज में चल रहे अत्याचार, अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार एवं भारतीय समाज की अखण्डता को खोखला कर रहे गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, अशिक्षा, बीमारी, विषमता, प्रदूषण जैसे विभीषकाओं से मुक्ति पाने के लिए वे इस लक्ष्य के साथ ’’मैं अपने नहीं अपनों के लिए हूँ, अपने वे हैं जो पीड़ित एवं उपेक्षित हैं’’। ऐसे पीड़ित उपेक्षित बन्धुओं के जीवन में खुशहाली आये इसके लिए उन्होंनें अपना पूरा जीवन लगा दिया। निरंतर प्रयोगवादी रहे राष्ट्र पर जब भी विपदायें आई निरन्तर प्रयोगवादी रहे नानाजी ने उन विपदाओं से निपटने के लिए हर संभव प्रयास किया। आन्ध्र प्रदेश में तूफान आने पर गांव के गांव तबाह हो गये तक उन्होंने समाज के सहयोग से आदर्श ग्राम दिया। गोण्डा (उ0प्र0) में मोतियाबिंदु से लोग परेशान थे वहाँ सरकारी तंत्र पहुँच नहीं पाता था 70 से 80 के दशक में गंाव-गांव नेत्र शिविर लगाकर समस्याओं का समाधान कर सरकार के सम्मुख एक नमूना प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं दूरस्थ ग्रामों में स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध न होने के कारण मरीज परेशान होते थे उस समय पर मोबाइल एम्बुलेन्स की सेवा सस्ते दरों में दवाई वितरण दाई प्रशिक्षण देकर गांव-गांव में आसानी से प्रसव हो सके ऐसी व्यवस्थायें की। गोण्डा में जल स्तर तो अच्छा था किन्तु सिंचाई व्यवस्था नहीं थी, उपलब्ध कच्चा माल बांस का प्रयोग लोहे के पाइप के स्थान पर करके 27000 से भी अधिक नलकूपों की व्यवस्था कर हर खेत को पानी देने का प्रबन्ध किया। हर हाथ को काम मिले रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षणों पर ध्यान देते हुये रोजगार की दृष्टि से विकास खण्ड स्तर पर प्रशिक्षण देना, क्रय विक्रय केन्द्र बनाकर प्रशिक्षण सह उत्पादन केन्द्र स्थापित किये, प्रयोग चलता रहा ज्यादा सफलता नहीं मिलने के कारण 90 के दशक तक आते-आते प्रशिक्षण सह उत्पादन केन्द्र के स्थान पर उत्पादन सह प्रशिक्षण केन्द्र बनाये। यह सुनने में आता है कि भारत कृषि प्रधान देश है नानाजी हर चीज को एकात्मता से विचार करते थे उन्होंने कहा भारत कृषि, पशुपालन एवं उद्योग प्रधान देश है। मानव के उदर-भरण हेतु तीनों की आवश्यकता है। कृषि में उपज अच्छी हो पशुधन का संरक्षण-संवर्धन हो इस हेतु भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सहयोग से उपरोक्त क्षेत्र में कई सफल प्रयोग करके किसानों के आय में वृद्धि की साथ ही उन्होंनंे विलुप्त हो रही जड़ी-बूटियों के संरक्षण-संवर्धन का भी काम किया। बालक-बालिकायें गरीबी के कारण शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते थे उनके लिए पढ़ाई के साथ कमाई हेतु कई अभिनव प्रयोग किये। शिक्षा संस्थानों के साथ ही उत्पादन सह प्रशिक्षण केन्द्र खड़ा कर दिये ताकि बच्चों में स्वरोजगार के प्रति रूचि बढ़े। गांव में बड़े किसान एवं भूमिहीन किसानों के बीच की खाई को कम करने की कोशिश की ।बालक-बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा में बस्तों का बोझ कम हो इस हेतु खेल-खेल में शिक्षा, प्रकृति के साथ जुड़कर सीखने की व्यवस्था, सुन्दर दुनिया टूट-फूट की एवं चलित विज्ञान प्रयोगशालायें, बालोद्यान आदि प्रयोग किये। भारत की परम्परागत ज्ञान, धंधे, रोजगार, संस्कृति, सभ्यता को संरक्षण संवर्धन करते हुए युगानूकूल परिवर्तन भी किये। परंपरागत धंधों को बढ़ावा दिया ।नानाजी रूढ़िवादी या परंपरावादी नहीं थे। वे कहते थे पुरानी चीजों को समझो फिर युगानुकूल बनाने की कोशिश करो। 1994 में जब हम नानाजी के पास पहुँचे तब हम बहुत दुबले-पतले थे, बड़े-बड़े डुपट्टे ओढ़ते थे, एक बार हम शिविर में भोजन परोस रहे थे नानाजी भी पंगत में थे हम एक तरफ से परोसते जा रहे थे और दूसरे तरफ से हमारा डुपट्टा पिछे से पत्तलों को समेटते हुये जा रहा था। नानाजी ने हमें बुलाया और बोले ’’क्या इस डुपट्टा का कुछ उपाय हो सकता है?कुर्ता के साथ ही आगे सिलकर लग सकता है क्या? प्रयोग करके देखो ऐसे थे… नाना जी। वे हर समय वैकल्पिक व्यवस्थाओं की खोज करते थे। आज के दौड़-भाग के जीवन में लोग कितने परेशान हैं, पैसा जरूर कमा रहे हैं नानाजी कहते थे ’’सभी कौन बनेगा करोड़पति नहीं कौन बनेगा सब से ज़्यादा संवेदन शील व्यक्ति ।पैदा होने वाला बच्चा कभी बीमार ही न पड़े इस हेतु आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा एवं आहार-विहार के क्षेत्र में बहुत अभिनव प्रयोग किये। स्वयं नानाजी दिनचर्या, ऋतुचर्या का पालन करते थे जीवन भर उन्होनंें अपनी नियमित आदतों को नहीं छोड़ा ।94 वर्ष तक जब तक नानाजी रहे उनकी स्मरण शक्ति का कोई जवाब नहीं था। वे सभी माताओं-बहनों को भी स्वस्थ्य रहने के लिए प्रेरित करते थे, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है इसलिए सभी आजीवन स्वस्थ रहें इस हेतु कई विभिन्न प्रयोग किये। नानाजी कभी बीमार ही नहीं पड़ते थे एक बार ह्रदय का शल्य चिकित्सा होना था बाहरी खून की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। अंत समय तक नानाजी सब कुछ खाते रहे क्योंकि वे संतुलित भोजन करते थे । दूब का रस, बकरी एवं देशी गाय का दूध पिलाकर कुपोषित बच्चों को स्वस्थ्य बनाया। नानाजी परिवार संस्था पर बहुत शोध किये देश-विदेश प्रवासों के दौरान वे कभी भी होटल में नहीं रूकते थे किसी न किसी परिवार में रूकते थे। उनको सभी प्रकार की जानकारी जैसे भगवत् गीता के श्लोक से लेकर बागवानी, रसोई का काम, खेल-कूद आने के कारण वे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक रिश्ता बनाकर परिवार की गतिविधियों को समझ कर कपड़े घर में कैसे सुखाना चाहिए, भोजन कैसे परोसना आदि विषयों पर कभी-कभी अचानक कार्यकर्ताओं से पूछते थे कि आपके पास कितनी साड़ियां है? कहते थे इतनी साड़ियां एकत्रित न करो गरीब महिला के पास 01 या 02 साड़ी ही होती है, उपभोग कम किया करिये ऐसा मंत्र देते थे, उनकी इस बात का हमारे मन पर यह प्रभाव हुआ कि हमें जितनी साड़ियां नई मिलती थी उतनी ही अपनी साड़ियां जिन्हें आवश्यकता होती थी हम दे देते थे। कोई रंग बिरंगी बिंदी लगाने पर कहते थे माथे पर लाल बिंदीं ही अच्छी लगती है और वैज्ञानिक ढ़ग से सही भी सिद्ध करते थे। सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की वेश-भूषा कैसी होनी चाहिए उस विषय पर भी गहन चिन्तन करते थे। परिवार संस्था के अध्ययन का निचोड़ यह रहा कि उन्होंनें देश-विदेश के अनेक परिवारों को हजारों परिवार आज भी देश एवं समाजसेवा में लगे हुये हैं। पढ़-लिखने के बाद युवा सामाजिक कार्यों से जोड़ने हेतु उन्होंने एकल समाज शिल्पी योजना 1996 तक चलाया। उनके अनुभवों के उपरान्त उन्होंने यह पाया कि पति-पत्नी काम पर लगेगें तो परिणाम अच्छा आयेंगें इसलिए समाज शिल्पी दम्पत्ति योजना प्रारम्भ किये गांव की खुशहाली के लिए वे निरन्तर सोचतेे रहते थे उन्हें यह लगा कि केवल खेती, पशुपालन, रोजगार उपलब्ध कराने से गांव का समग्र विकास नहीं होगा इसलिए उन्होेनें यह तय किया कि गांव स्वावलम्बी बनें अतः 2002 से तीन-तीन साल की कार्ययोजना बनाकर स्वालम्बन अभियान का शुभारम्भ किया, जिसमें खेती, पशुपालन, रोजगार, पढ़ाई, दवाई, हरियाली आदि विषयों का समावेश कर वर्तमान समय में लगभग हर दूसरा व्यक्ति कोई न कोई बिमारी से ग्रसित है अब सभी जैविक उत्पाद, जैविक खेती, योग व्यायाम की चर्चा कर रहे हैं। नानाजी 70-80 के दशकों में ही सब करके दिखा दिये। शहरी लोग कहते हैं कि हमको ताजी सब्जी, ताजा फल नहीं मिलता, नानाजी ने दिल्ली जैसे महानगर में सात मंजिला आसमान छूती (उस समय की)इमारत के छत पर फल, फूलों, सब्जी की बागवानी किये। रसोई से निकलने वाली कचड़ा से खाद निर्माण का कार्य भी किया। प्रत्येक व्यक्ति की उत्पादक क्षमता विकसित करने हेतु बहुत प्रयोग किये दैनिक उपयोग की वस्तुओं का निर्माण कर सस्ते दामों में उपलब्ध कराने का प्रयास किया। स्वाद के साथ सेहत का भी ध्यान रखा गया।नानाजी के आशिर्वाद से देश-विदेशों में ग्राम विकास के सफल प्रयोंगों के परिणामों को साझा करने का अवसर हमें प्राप्त हुआ। जब हम हावर्ड विश्वविद्याल अमेरिका में व्याख्यान के लिए जा रहे थे तब हमारा एक भारतीय परिवार में रूकना हुआ तब परिवार के मुखिया ने हमसे कहा कि नानाजी जब हमारे यहां आये थे तक उन्होंने हमें यह बताया था कि प्लास्टिक का प्रयोग बढ़ रहा ळे जो हानिकारक है। तबसे हम प्लास्टिक के बोतलों का प्रयोग नहीं कर रहे हैं। संस्थान के कार्यक्रमों के आयोजनांें में हमेशा हरा दोना, हरा पत्तल एवं कुल्हड़ो का ही प्रयोग करवाते थे।
विदेश प्रवासके समय वह हमेशा पहले से पूरा सामान तौलवाकर व्यवस्थित करवाते थे क्योंकि हवाई अड्डे पर कार्यकर्ता को परेशानी न हो। अभी युवा पीढ़ी कहती है ’क्या है ज्यादा वजन होगा तो पैसा जमा करेंगें’ नानाजी तनाव मुक्त जीवन के लिए अभिनव प्रयोग करते रहते थे।
नानाजी ने परिवारों में देखा कि बुजुर्ग लोगांें की कीमत कम हो रही वे अकेलापन महसूस कर रहे हैं साथ ही वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या उनको पीड़ा देती थी इसलिए उन्होंने सेवानिवृत्त दंपत्तियों का आह्यन किये, गुरू माता-गुरू पिता के रूप में स्थापित किये। गांव के बुजुर्गों के लिए श्रद्धा पर्व शुरू किए,शोध कार्य मात्र धनोपार्जन के लिए नहीं समाज के हित के लिए हो। नानाजी शोध कार्य के लिए कहते थे कि परिवर्तनों को स्वीकार करने की क्षमता विकसित हो ऐसे शोध कार्यो की आवश्यकता है। वे स्वयं शोधार्थी थे ही उनके आस-पास के लोगों को भी शोधार्थी बनाकर आनन्द लेते थे। नानाजी कभी भी किसी भी समस्या का सीधा समाधान नहीं करते थे उनकी इतनी गहरी सोच और जानकारी होती थी कि वे उस समस्या का समाधान दूरगामीपरिणामों से करते थे। बाल-विवाह, बच्चों की मृत्यु दर, दहेज प्रथा, मदिरापान इन कुरीतियों को समाप्त करने हेतु निःशुल्क छात्रावास, सुविधायुक्त शिक्षण व्यवस्था प्रारंभ किये। छात्र-छात्राओं को संस्कारवान बनाकर समाजोपयोगी बनाया ।पलायन को रोकने के लिए स्वच्छ-सुन्दर गांव का निर्माण साथ ही शहर के बड़े-बड़े कलाकारों को फिल्मी जगत के जाने-माने हस्तियों को, देश के प्रभावी राजनितिक चाहे जिस भी दल के हों, सन्त महात्माओं को, बड़े-बड़े उद्योगपतियों को बुलाकर सबसे पिछड़े इलाकों में उनकी व्यवस्था करना, ग्रामीण जनों के साथ संवाद कराना, ग्राम दर्शन कराना जिससे वे गांव की समस्याओं से परीचित हो सके ऐसा वे इसलिए करते थे ये सब महानुभाव गांव की समस्याओं के समाधान के लिए स्वयं आगे आकर काम करें। पढ़-लिखकर विदेश में नौकरी कर रहे युवाओं को भी समाजोपयागी कार्यों के लिए मदद लेना ताकि उन्हें अपनी जन्म भूमि, मातृ भूमि से प्यार हो। देशी तकनीक से पीने का पानी शुद्धीकरण करवाते थे, उनको मशीन से भी परहेज नहीं था, कहते थे जहाँ आवश्यक है वहाँ मशीनों का प्रयोग करो।
भारत रत्न नानाजी देशमुख जी का जीवन भर का शोध का परिणाम अलाभकर जोत को लाभकर बनाना हुनर जिसके पास नहीं है उसको हुनरमंद बनाना, अशिक्षित हैं चाहे जिस उम्र का हो उन्हें शिक्षित बनाना, शहर और गांव के बीच की खाई को कम करना, समाज के मुख्य धारा से कटे लोगों को मुख्य धारा से जोड़ना, जीर्ण व्याधि रोगियों की उपचार की व्यवस्था, उपलध संसाधनों की उचित व्यवस्था, स्थानीय लोगों को सक्षम बनाना, श्रद्धा केन्द्रों को साफ-सुथरा व्यवस्थित रखना, सर्वमान्य व्यक्ति की खोज, सरकारी योजनाओं का धन व्यर्थ न जाये उन योजनाओं का सफल संचालन, कम धनराशि में गुणात्मक कार्य करना, आंतरिक सुरक्षा को मजबूत करना, आत्मीयता को बढ़ावा देना, आपस के विवादों को कोर्ट कचहरी में न ले जाकर आपस में मिल बैठकर सुलझाकर विवाद मुक्त बनाना रहा।
जीवन भर शोधार्थी रहे नानाजी को कई विश्वविद्यालयों ने डिलीट मानक उपाधियां प्रदान किये। नानाजी को देहावसान के बाद उनकी देहदान के संकल्प के कारण शोध कार्य हेतु एम्स को सौंप दी गई, जाते-जाते भी वे शोध कार्य के लिए समर्पित हो गये।
!!सर्वेभूत हितेरतः!!