Spread the love

*ईरान-इज़राइल विवाद*

*भावनाओं से नहीं, विवेक से सोचिए- इतिहास कुछ कहता है!”*

“ईरान ने इज़राइल पर हमला कर दिया!”
सोशल मीडिया पर यही सबसे ज्यादा तैरता वाक्य है। पिछले तीन, चार दिनों से फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर हर कोई रणनीतिकार बन बैठा है। कोई ईरान को सलामी दे रहा है तो कोई इज़राइल के “साहस” की प्रशंसा में डूबा है। मगर, जमीनी सच्चाई और भौगोलिक हकीकत इससे कहीं गहरी और पेचीदा है।

यह लड़ाई सिर्फ ईरान और इज़राइल की नहीं है। इसमें छिपे हैं कई और ताकतवर नाम जैसे ईरान के साथ रूस , चीन , पाकिस्तान (तकनीकी सहयोग), हिज़्बुल्लाह, हौथी (यमन), और इराक के शिया मिलिशिया।
तो वही इज़राइल के साथ अमेरिका , ब्रिटेन , फ्रांस , जर्मनी , ऑस्ट्रेलिया , कनाडा – और शायद ‘नाटो’ की छाया।

और बीच में सऊदी अरब, जो फिलहाल चुप है, लेकिन उसका झुकाव हमेशा अमेरिका-इज़राइल गुट की ओर रहा है।

इतिहास गवाह है कि जो भी अमेरिका से भिड़ा, वो बिखर गया

*सद्दाम हुसैन (इराक)*

अमेरिका को ललकारा, WMD रखने का आरोप लगा।

2003 में हमला, 2006 में फांसी।

आज इराक टुकड़ों में बंटा है, अशांति में डूबा है।

*मुअम्मर गद्दाफी (लीबिया)*

यूरोप और अमेरिका को चुनौती दी।

2011 में नाटो की बमबारी, विद्रोहियों ने मार डाला।

लीबिया आज भी स्थिर नहीं।

*बशर अल-असद (सीरिया)*

रूस और ईरान की मदद से अब तक बचा है।

लेकिन देश युद्ध से तबाह, लाखों शरणार्थी, बर्बादी की मिसाल।

कहने का मतलब ये है कि जो देश NATO और अमेरिका को खुली चुनौती देता है, उसे या तो मार दिया जाता है, या उसका देश गृहयुद्ध में झोंक दिया जाता है। और इज़राइल पर हमला अमेरिका पर हमला देखा जा रहा है।

अब सवाल अपने देश भारत के अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों से…

*क्या यह हमारी लड़ाई है?*

ईरान और इज़राइल के इस संघर्ष में भारत की सरकार अभी “वेट एंड वॉच” की स्थिति में है। तो फिर सोशल मीडिया पर आम भारतीय, खासतौर पर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक वर्ग – क्यों इस लड़ाई को अपनी भावनाओं से जोड़ रहे हैं?

*भारत के अल्पसंख्यकों को यह सोचने की जरूरत है*

क्या ईरान की ताकत इतनी है कि वह इज़राइल और अमेरिका जैसे देशों से युद्ध जीत सके?

क्या यह संघर्ष सिर्फ जज़्बातों से जीता जा सकता है?

और भारत के बहुसंख्यक वर्ग को भी यह समझना होगा:

इज़राइल की रणनीति, ताकत और क्रूरता भी सवालों के घेरे में रही है।

हर हाल में किसी एक पक्ष का समर्थन करना समझदारी नहीं है।

भारत एक जिम्मेदार लोकतांत्रिक देश है। कूटनीतिक मजबूती और रणनीतिक संतुलन के साथ वह अपनी विदेश नीति तय करता है। ऐसे में हम नागरिकों का भी यही दायित्व है कि बिना पूर्ण जानकारी के, हम न ईरान के लिए पोस्टों में जोश दिखाएं, न इज़राइल के लिए नारा लगाएं।

यह अंतरराष्ट्रीय राजनीति है, दोस्त – यह क्रिकेट मैच नहीं!

आज जो लोग ईरान के पक्ष में “कसीदे” पढ़ रहे हैं, कल वही लोग शर्मिंदा भी हो सकते हैं – जैसे गद्दाफी और सद्दाम के समर्थक हुए थे।

और जो इज़राइल को हर हाल में सही बता रहे हैं, वो यह न भूलें कि ताकतवर होना न्याय का प्रमाण नहीं होता।

जो देश भारत का साथ देगा, वही देश हमारे समर्थन का हकदार है।
और जब भारत खुद तटस्थ है, तो हमें भी सोशल मीडिया पर संतुलन और शांति दिखानी चाहिए।इतिहास कहता है कि जो भावनाओं में बहते हैं, उन्हें वैश्विक राजनीति बहा देती है।

*आपका अपना हिंदी दैनिक ‘वॉइस ऑफ़ प्रयागराज’ ‘लोकल’ लेकिन ‘जागरूक’ अखबार*

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You missed